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‘KAVITA’ –Prof. Kailash Chander Sinhal ( A profound writeup on ‘Poetry’

कविता प्रो० कैलाशचन्द्र सिंहल  I (यह गहन लेख सतीश चंद्र धवन राजकीय महाविद्यालय, लुधियाना की इनहाउस पत्रिका ‘द सतलुज’ के 1959 संस्करण से साभार लिया गया है)

काव्य के विभिन्न रूपों में कविता प्राचीन काल से ही सर्वोत्कृष्ट मानी जाती है। जब से काव्य की उत्पत्ति हुई अथवा मानव ने अपने मन में गुन-गुनाना आरम्भ किया, तभी से संगीत और कविता ने जन्म लिया । कविता का सम्बन्ध भाव, और संगीत का नाद या स्वर से है परन्तु दोनों का मेल प्राचीन काल से ही मनुष्य करता चला आया है।

यदि वह संगीत सुनना चाहता है तो उसमें केवल नाद का आलाप सुनने से वह उतना संतुष्ट नहीं होता जितना भाव-मिश्रित आलाप को सुनकर । इसीलिए यांत्रिक संगीत Instrumental music से मनुष्य को गीति-युक्त गान अधिक प्रिय है। यदि वह कविता सुनना चाहता है तो उस में केवल गद्यात्मक भावों से ही उतना प्रभावित नहीं होता जितना पद्यात्मक अथवा छन्द व लय युक्त वा संगीततत्त्व से मिश्रित भावों से प्रभावित होता है जैसे पहले कहा जा चुका है कि नाद की पहुंच केवल इन्द्रियों तक है। उस में कर्ण रस है, परन्तु भावों की पहुंच इस से आगे मन आत्मा तक है जिससे मनुष्य की आत्मा का आवरण छिन्न होकर आत्मसाक्षात्कार हो जाता है।

कविता के विषय में श्री ब्रेडले ने ठीक ही कहा है ‘Poetry is a spirit’ ‘कविता आत्मा है।’ वास्तव में कबिता को यदि ‘आत्मा की वह छन्दोमय अथवा लययुक्त वाणी कह दिया जाय जो मनुष्य के हृदय में विरल क्षणों में अकस्मात् प्रस्फुटित हो जाती है, तो अधिक उपयुक्त होगा। वास्तव में काव्य का फलही चतुं वर्गफलप्राप्तिः न अन्तरच मत्कार(कुन्तक) नहीं है जैसा कि विश्वनाथ ने लिखा है-

चतुर्वर्ग फलप्राप्तिः सुखादलधियामपि

काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूपें निरुप्यते (साहित्य दर्पण)

चतुर्वर्गफनास्वादमप्यतिक्रम्य तदिदाम्

काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारी नितम्मते (कुन्तक व जी १, ५.)

वरन् कविता की उत्पत्ति ही उस समय होती है जब मनुष्य चेतना के एक ऐसे क्षेत्र में पहुंचा हुआ होता है जहां उसकी अन्तरात्मा मानो सहजप से कुछ कह‌ना चाहती है और वह अनुभूति जब शब्दों का रूप ले लेती है तो कविता बन जाती है। इसीलिए वेद में वाणी को गुहा में निहित बतलाया गया है जहां से ऋषि लोग उसे खोज कर लाते है !

वृहस्पतेः प्रथमं वाचो अग्रं

यत्प्रेरत नामधेयं दधानाः ।

यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रभासीत्

प्रेणा तदेषां निहितं गुहा विः ।।

सक्तुमिव तितउना पुनन्तो

यत्र धीरा मनसा वाचमकत ।

अत्रा सखायः सख्यानि जानते

भद्वैषां लक्ष्मीनिहिताधिवाचि ।।

यज्ञेन वाचः पदवीयभायन्,

तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् । ।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा

तां सप्तरेभा अभिसंनवन्ते ॥

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानिविदुर्भाह्म ये मनीषिणः।

गुहा भीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनु बदन्ति (१, १६४, ४५)

उस वाणी के तीन भाग तो समझ में ही नहीं आते । केवल चौथा भाग है जिसे मनुष्य बोलते हैं।

आत्मा का यह संगीत ही कविता है। यह ठीक है कि कई बार बाहर से जगत् की परिस्थिति हमें इस प्रकार की अवस्था में भेज देती है कि आत्मा का आवरण फट कर कविता प्रस्फुटित हो जाती है परन्तु होती है सदाअन्दर से ही। उसका स्रोत अन्दर ही है।

महर्षि बाल्मीकि ने क्रौञ्चमिथुन में से एक क्रौंच पक्षी के वध को देख कर जो एक संगीत गाया वह कविता बन गया। इसीलिए हमने उन्हें आदिकवि कहा। (क्रौंच मिथुन, रामायण की कथा में एक प्रसिद्ध प्रसंग है, जिसमें वाल्मीकि ऋषि ने वन में एक स्थान पर एक क्रौंच पक्षी के मग्न जोड़े को देखा था। तभी एक शिकारी ने नर क्रौंच की हत्या कर दी, जिससे मादा क्रौंच चीखते और पंख फड़फड़ाते विलाप करने लगी। इस घटना से वाल्मीकि को इतना दुख हुआ कि उनके मुख से संस्कृत का पहला श्लोक निकला। महर्षि के मुख से निकले उक्त छंदबद्ध वचन उनके किसी प्रयास के परिणाम नहीं थे। घटना का वर्णन उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज के समक्ष किया और उसे बताया कि उनके मुख से अनायास एक छंद-निबद्ध वाक्य निकला जो आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों, कुल बत्तीस अक्षरों, से बना है । इस छंद को उन्होंने ‘श्लोक’ नाम दिया । वे बोले “श्लोक नामक यह छंद काव्य-रचना का आधार बनना चाहिए I ) एक पक्षी के वध को महर्षि बाल्मीकि को वह आत्मसाक्षात्कार हुआ जिस से सारी रामायणी कथा उन पर प्रकट हो गई ।

प्रश्न यह उठता है कि क्या सभी कवि इतने उच्च घरातल से कविता लिखते हैं, अवश्य ही नहीं। परन्तु उनमें भी आत्मानुभुति का वह प्रकाश साधारण चेतना से कुछ तीव्र और उच्च कोटि के ही  कवियों की चेतना से कुछ मद्धम अवश्य होता है। यह ठीक है कि उसकी अभिव्यक्ति में प्राण क्षेत्र का इतना वेग मिल जाता है अथवा बुद्धि क्षेत्र की इतनी कल्पना आ सम्मिलित होती है कि हम भावनाओं का उद्रेक, उन्माद वा कल्पना का चमत्कार कहने लगते हैं। पश्चिमी विद्वानों की लगभग सभी परिभाषायें इस तत्त्व पर आधारित हैं। उन्होंने कविता में Emotion- भावना व  कल्पना -Imagination का सम्मिश्रण ही देखा परन्तु कविता तो इस से परे की वस्तु है।

यहां पर यह आपत्ति की जा सकती है कि जिन लोगों को शराब पीकर कविता करने की उमंग उठती है, उनके विषय में क्या कहा जायगा । वास्तव में जिस प्रकार मनुष्य सोते समय कई बार ऐसी चेतना में पहुंच जाता है जहां उसका सम्बन्ध अध्यात्मिक चेतना से हो जाता है, ठीक इसी प्रकार शराब पीकर वा किसी मादक बस्तु का सेवन करने से कई लोगों की चेतना ऐसे क्षेत्र में पहुंच जाती है जिसे हम आध्यात्मिक अनुभूति के क्षेत्र के समीप कह सकते हैं। परन्तु ध्यान रखिये कि इस प्रकार की अनुभूति में सत्य स्थायी न हो कर क्षणिक होना है। इसी क्षणिक अनुभूति के श्राधार पर शब्दों द्वारा जो अभिव्यक्ति होती है उस में कई बार प्रवाह, कई बार कल्पना, कई बार आवेग और कई बार पागलपन का प्रलाप भी होता है । क्योंकि साधारण चेतना के प्रसुप्त होने पर अवचेतना में जो भी क्षेत्र खुला रह जायेगा उसी से कविता की उत्पत्ति हो जायेगी। परन्तु वास्तविक योगियों मुनियों थवा कवियों के साथ ऐसा नहीं होगा।  

कविता की उत्पत्ति के दो केन्द्र हो सकते है।

१-एक तो अवचेतन मन में जिस का वर्णन उपर किया गया है। इस में आवेग का आधिक्य होगा अथवा प्राणतत्त्व की अधिकता ।

२- दूसरा आत्मा का Super conscious mind -अतिमानसिक क्षेत्र में जहाँ से ऋषियों की अनुभूति अविरल घारा बन कर सहज रूप से प्रकट होती है।

अब एक प्रश्न और यह उठाया जा सकता है कि क्या छन्द वा लय कविता के लिए आवश्यक हैं! और यदि आवश्यक है तो क्या छन्द बिना संस्कार प्राप्त किये आत्मा की वाणी का रूप धारण कर सकते हैं ! अवश्य ही काव्य के लिए छन्द आवश्यक नहीं परन्तु कविता के लिए अवश्य चाहिये । छन्दों के अभ्यास का जो संस्कार हमारेअवचेतन मन में पड़ा रहता है उसी का प्रावरण पहन कर कविता फूट पड़ती है और ऐसा लगता है कि छन्दोमयी भाषा भी सह‌जोद्रेक spontaneous flow है। आत्मा की वाणी तो न गद्यात्मक है और न पद्यात्मक । परन्तु मनुष्य के अन्य क्षेत्र ऐसे हैं जो इसे लय अथवा छन्द का रूप देने का प्रयत्न करते हैं-विशेषकर प्राणों का क्षेत्र ऐसा है जो अवश्य ही ऐसा कर डालता है परन्तु यदि कवि में बुद्धित्तत्त्व इतना प्रबल हुआ कि प्राणों का क्षेत्र उसके सन्मुख दुर्बल है तो कविता भी गद्य बन जायगी । उस में अनुभूति की तो मार्मिकता होगी, परन्तु अभिव्यक्ति का संगीत नहीं। इस लिए कार्लायल (Carlyle ) ने कविता को Musical thought संगीतात्मक विचार ही कह दिया था। छन्द का साधारण अर्थ भी तो, छद् आच्छादन वा वस्त्र ही है !

प्रश्न यह है कि कविता में प्रधानता किस बात की है ? पश्चिमी विचारकों में से किसी ने विचार को मुख्यता दी ही है तो किसी ने लय वा छन्द को। किसी ने दोनों का ही सम्मिश्रण करने का प्रयत्न किया है ।

जानसन (Johnson) ने लिखा है-‘Poetry is metrical Composition’ it is the “art of uniting pleasure with truth by calling imagination to the help of reason” and its essence is invention, मिल (Mill)ने भी इसी प्रकार लिखा है “What is poetry, asks Mill: ‘but the thought and words in which emotion spontaneously embodies itself” “By poetry”, says Macaulay “we mean the art of employing words in such manner as to produce an illusion, the art of doing by means of words  what the painter does by means  of Colours.” Poetry says Shelley ‘in a general sense may be defined as the expression of the imagination”, ‘It is’, says Hazlitt” “the language of the imagination and the passions.”

भारतीय आचार्यों ने इस प्रश्न को काव्य को आत्मा वा शरीर की दृष्टि से सोचा है ! दण्डी  को यदि काव्य में अलंकार प्रमुख प्रतीत हुए तो  वमन को रीति और कुन्तक को वक्रोक्ति ! विश्वनाथ ने काव्य की आत्मा रस माना है और ध्वनिकार ने ध्वनि ।

परन्तु इन सब बातों पर विचार करते समय  हमें यह नहीं भूलाना चाहिये कि कविता कला  की एक विधा है ! कला में मुख्यता अनुभूति experience की है। जगत् की बाहरी परिस्थिति से आघात खा कर जब आवरण  छिन्न हो जाता है अथवा स्वयमेव  स्फूर्त भाव में जब कविता-स्रोत बह निकलती है तो वह वास्तविक रूप में आत्मा की अभिव्यक्ति अथवा आत्मा की अनुभूति ही तो है जो वाणी वा शब्दों द्वारा व्यक्त हो रही है !  कविता में सर्वप्रथम मुख्यता उस अनुभूति की है जो  कवि वा कलाकार को होती है। दूसरी बात इस विषय में विचारणीय होगी वह यह कि कवि कहां तक इस आत्मानुभूति को दूसरो को व्यक्त करने में समर्थ हुआा है।अगर कवि की वाणी इतनी उपयुक्त,समर्थ सशक्त है कि वह श्रोता, पाठक, दर्शक की आत्मा के आवरण को भी छिग्न करकै उसे आत्मविभोर व रसमग्न करने में सफल हुई है तो अवश्य ही कविता उत्तम कोटि की हैं। अतः श्रोता वा दर्शक की दृष्टि से भी उस आत्मानुभूति के साक्षात्कार का महत्त्व है। तो दूसरी बात प्रधानता की दृष्टि से है कवि की सर्मथता जो शब्द, अर्थ, लय, छन्दादि द्वारा मापी जा सकती है।

अनुभूति जब बुद्धि के क्षेत्र में प्रविष्ट होती है तो वह विचार का रूप धारण करती है और जब वह और नीचे उतर कर प्राण-क्षेत्र में प्रविष्ट होती है तो Passion, emotion आवेग अथवा आवेश का रूप धारण करती है यहीं से उस की छन्द वा लय का भी वेश प्राप्त होता है। और अन्त मैं वह स्थूल वाणी वा लिखित शब्दों के माध्यम द्वारा पाठक, श्रोता वा दर्शक तक पहुंच पाती है।

अतः कविता के मुख्य तत्त्व अनुभूति और उस को व्यक्त करने की सामर्थ्य होने चाहिए ! बुद्धितत्त्व, कल्पनात्तत्त्व अथवा भावतत्त्व का महत्त्व इतना ही है कि बुद्धि की दृष्टि से वह असंगत न हो। दूसरे शब्दों में अनुभूति की व्यक्ति धुंधली वा अस्पष्ट न हो बल्कि स्पष्ट और सुसंगत हो। कल्पनातत्त्व का महत्त्व इतना ही है कि कई बार वह हमारे मानसिक व्यापार को तीव्र कर मानसिक आनन्द में सहायक होती है जब कि भावतत्त्व प्राणगत श्रानन्द का कारण होता है।

शब्द और अर्थ की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि शब्द और अर्थ भी तो अनुभूति के आच्छादन ही हैं, परन्तु मानव समाज में उस अनुभूति को जिस माध्यम द्वारा व्यक्त किया जाता है उस में शब्द और अर्थ ही सब से सशक्त हैं । संकेत, शिला, रेखादि इतने समर्थ और Exact -पूर्ण नहीं। इसीलिए भारतीय आचार्यों ने ‘शब्दार्थों’ सहितौ काव्यम्’ कहा।

आचार्य मम्मट संस्कृत काव्यशास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वान ने भी ‘तददोषी शब्दार्थों ‘ का प्रयोग किया। शब्दार्थ को इक्ट्ठा प्रयुक्त करने का भी विशेष प्रयोजन है।यदी शब्दार्थ को अलग २ प्रयुक्त किया जाय तो निरा अर्थ  शब्द के बिना नहीं ठहर सकता । अर्थ की अभिव्यक्ति तो शब्द द्वारा ही होती है , शब्द विना अर्थ के ध्वनि मात्र बन जायगा जो संगीत का तो माध्यम बन सकता है, कविता का नहीं।

 कविता का महत्त्व संगीत से इसीलिए अधिक है कि माध्यम शब्दार्थ अथवा अर्थयुक्त भाव वा विचार मनुष्य के बुद्धि क्षेत्र तक दौड़ लगाता है जो आत्मा की स्थिति के निकटतम है जब कि संगीत केवल प्राण-क्षेत्र तक । अतः “शब्दार्थ”कविता की अनुभूति को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त साधन हैं । अवश्य ही “शब्दार्थ यदि दोष रहित होंगे अथवा सालंकृत होंगे तो वे अनुभूति के व्यक्तीकरण में अधिक सहायक होंगे। दोषपूर्ण शब्द कदाचित् ऐसा न कर सकेंगे परन्तु दोष वा श्रदोष का निश्चय अनुभूति की अभिव्यक्ति के आधार पर ही होना चाहिए न कि व्याकरण वा अन्य किसी और ग्राधार पर ।

यदि पन्त कामहदाकाग’ आकाश में बादलों का आभास देता है तो इस में कोई हानि नहीं ‘पर्वताकार’ से यदि कवि को हिमालय का विस्तार दिखाना है तो अवश्य ही यह सुन्दर और उपयुक्त है। वास्तव में कविता में अन्य कलायों की विशेषता अर्थात् मूर्तिकला की मूतिमत्ता वा स्थूलता, स्थिरता, चित्रकला की चित्रात्मकत्ता, वा संगीतकला की नादात्मकता का जो अभाव रहता है वह सब शब्द-योजना अथवा रीति, अलंकार और गुणों के उपयोग के साहित्य उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है ताकि कविता एक सम्पूर्ण कला बन सके। यही है कविता में धर्मकार, रीति और गुणादि का उपयोग स्थान परन्तु इस को कविता की आत्मा इसीलिए माना गया है कि ‘रस’ वास्तव में  स्थूल न होकर कवि की वह आत्मानुभूति है जिसे वह व्यक्त करने में समर्थ हुआ है।

विचार या thought जैसा कि पहले लिखा जा चुका है बुद्धि क्षेत्र का विषय होने से रस व आत्मानुभूति के निकटतम पहुंच जाता है। ध्वनि का अर्थ व्यंजना किया गया है। यदि ध्वनि आत्मानुभूति की व्यंजक शक्ति का ही नाम है तो अवश्य ही प्रमुखता की दृष्टि से दूसरे नम्बर पर आयगी। क्योंकि जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, कविता के मुख्य तत्त्व अनुभूति और उस की अभिव्यक्ति ही हैं। ‘वक्रोक्ति’ को कुतंक ने ‘वाग्वैदग्ध्य भंगी भणितिः’ कहा है । अर्थात् ‘वाणी की विदग्धता पूर्ण भंगी’। यदि इस का अर्थ यही कर दिया जाय कि जो वाणी का चातुर्य अनुभूति को व्यक्त करने में समर्थ हो तो वक्रोक्ति का स्थान बहुत ऊँचा हो जायगा, परन्तु यदि यह केवल चम्त्तकारोत्पत्ति का ही साधन हो जिस से क्षणिक मानसिक उल्लास उत्पन्न हो जाये तो इस का स्थान अलंकार के समकक्ष counterpart ही होगा ।

मैथ्यू आर्नल्ड ने कविता की परिभाषा जीवन की आलोचना की है According to Mathew Arnold, it “is simply the most delightful and perfect form of utterance that human words can reach”; “It is nothing less than the most perfect speech of man, that in which he comes nearest to being able to utter the truth; It is “a criticism of life under the conditions fixed for such a criticism by the laws of poetic truth and poetic beauty.”

जीवन की आलोचना कविता उसी सीमा तक है जहां तक यह कवि की अनुभूति को प्रेरित करने में सहायक होती है। कवि जीवन को देखकर कविता नहीं लिखने बैठता, अवश्य ही जीवन विषयक दृष्टि-कोण उस की कविता में होता है। परन्तु वह केवल जीवन ही की तो बात नहीं करता, उस के परे की भी तो बात कर जाता है क्या मिल्टन का Paradise lost केवल जीवन की ही आलोचना है ? अथवा जीवन के प्रति व्यक्त हुद्या कल्पना-प्रसूत दृष्टिकोण ही है ? नहीं। वह एक सत्य को प्रकट करता है जो हमारे सावारण सत्यों से कहीं ऊपर का है। उसे वही समझ सकते हैं जिन्हें उस अतिजागतिक सत्य का अनुभव है। वेद के मन्त्रों में केवल जीवन के ही सत्य नहीं उससे परे के भी हैं। अतः यदि केवल जीवन को देखकर उससे संस्कार प्राप्त कर कविता द्वारा कवि अपने दृष्टिकोण को व्यक्त करता है तो वह केवल वाह्य जगत् का चित्र होगा और उसका क्षेत्र सीमित होगा। परन्तु कवि तो अपने अन्तर की अनुभूति को व्यक्त करता है जो न केवल इस जीवन वा जगत् के सत्य को प्रगट करने वाली होती है बल्कि उस से परे के को भी।

यहां आपत्ति की जा सकती है कि कवि का सम्बन्ध अपने चारों ओर के जगत से कुछ नहीं? अवश्य ही उस का सम्बन्ध है कई बार बौद्धिक धरातल पर  वर्तमान समस्याएँ वह कविता के माध्यम द्वारा व्यक्त कर देता है पर वह उच्च कोटि की कविता तो नहीं । उच्च कोटि की कविता तो वही है जो वाह्य परिस्थिति से निरपेक्ष होकर अन्तःप्रसूत होती है। हाँ बाह्य परिस्थितियों कई बार कवि को धक्का लगा कर उसकी काव्यधारा को प्रवाहित करने में अथवा आत्मसाक्षात्कार कराने में समर्थ अवश्य होती हैं जैसे बाल्मीकि ने जब ‘क्रौंचमिथुन’ में से एक पक्षी की हत्या को देखा तब रामायण की उत्पत्ति हुई। अथवा निराला ने ‘भीख मंगे को सड़क पर देखा वा ‘विधवा’ के दर्शन किये तो दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता वा वह इष्ट देव के मन्दिर की पूजा सी’कविता फूट पड़ी। प्रेमचन्द ने गाड़ी के पीछे दौड़ते हुए भीख मंगे को देख कर रंगभूमि लिखा परन्तु सदा ही ऐसा नहीं होता। आत्मानुभूति का साधन वा स्थिति भी हो सकता है और नहीं भी ।

कार्लायल आदि विद्वानों ने कविता को विज्ञान का विरोधी माना है ! In Coleridge’s view poetry is the antithesis of science. having for its immediate object pleasure and truth. In Wordsworth, it is the breath and spirit of all knowledge’ and “the impassioned expression which is in the continence of all science.”

विज्ञान को यदि भौतिक विज्ञान लिया जाये तो यह सम्भव है कि कविता का उस से कहीं २ बिरोध उत्पग्न हो जाय । वास्तव में विज्ञान का दृष्टिकोण जब वस्तुपरक होता है तो उस में बाह्य पदार्थों व तथ्यों का विश्लेषण कर एकसत्य पर पहुंचने की दृष्टि रहती है। कवि भी कुछ ऐसा ही करता है यदि उसका दृष्टिकोण वाह्यपरक है । अन्तर केवल इतना ही है कि कवि अपने मन की अनुसन्धान शाला में सब कुछ करता है जबकि वैज्ञानिक स्थूल प्रयोग शाला में । परन्तु सत्य को पाने का दृष्टिकोण अवश्य ही दोनों का रहता है। यह दूसरी बात है कि वे सत्य को पाने में कहां तक समर्थ हो सकता है । कवि और वैज्ञानिक में इतना अवश्य हो जाता है कि कवि की दृष्टि मानसिक क्षेत्र पर आधारित होने के कारण सूक्ष्म व समग्र होती है। वह जो अन्तः प्रसूत के समूचे Synthetic form में देखने के योग्य होती है परन्तु वैज्ञानिक कई बार एक पक्षीय हो जाता है क्योंकि उसका दृष्टिकोण सश्लेषात्मक न हो कर विश्लेषणात्मक होता है। पर आज कल के विभिन्न विज्ञानों के तुलनात्मक अध्ययन ने इस त्रुटि को पूर्ण कर दिया है। फिर अन्तर क्या है ? मुख्य अन्तर तो यही है कि आज का वैज्ञानिक मानसिक वा बौद्धिक धरातल पर बैठ कर बाह्य जगत् का विश्लेषण करता है जब कि कवि आत्मानुभूति द्वारा जगत् को देखता है । अन्तर प्रस्तुत होता है, वाह्य सत्यों पर श्राधारित होती है। यहाँ पर कवि और दर्शनवेत्ता अथवा भारतीय शास्त्र प्रणेता जिन्होंने सत्य का अन्तःसाक्षात्कार किया एक कोटि में आ जाते हैं। साक्षात्कृत धर्मणों “बभूतः” । परन्तु मुख्य अन्तर कवि और शास्त्र कार में यही रहता है कि कवि कलाकार है वह अपनी अनुभूति को सरस और सौंदर्य पूर्ण शब्दार्थ द्वारा व्यक्त करता है जब कि शास्त्रकार अपनी अनुभूति को केवल शब्दार्थ द्वारा व्यक्त करता है । उन में सरसता और सौंदर्य की अपेक्षा आवश्यक नहीं ।

शास्त्र प्रणेता का सत्य केवलसत्यं’ है अथवा अधिक से अधिकशिवं’ हो सकता है परन्तु सन्दरं’ नहीं । कवि का सत्य शिव और सुन्दर भी होता है। इसीलिए कवि की रचना आह्लादकारी और संगीतमयी होती है जब कि शास्त्र प्रणेता की रचना केवल सत्यानुप्राणित वं गद्यमय होती है । यद्यपि दोनों ही आत्मानुभूति को व्यक्त करने में समर्थ होते हैं ।

 

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A sincere effort is being made to digitally preserve the rich literary heritage form the old editions of The Sutlej inhouse college magazine of SCD Govt. College, Ludhiana. The above article is from 1959 Edition. The pages of the issue are very badly damaged  from which this has been scanned doing full justice.  The magazine is though safely held in The Heritage Section by the  worthy librarian of the college.

The writeup speaks of profundity of the then teachers .

—Brij Bhushan Goyal [email protected]  ( Org Sec Alumni Association SCD Govt. College, Ludhiana)

 

 

 

 

1 comment

Dr.Sunil Chopra July 20, 2025 at 3:39 pm

Excellent selection and presentation!

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