साहित्यक आनन्द सत्य — श्रीनिवास
( सतीश चंद्र धवन राजकीय महाविद्यालय, लुधियाना की “सतलुज पत्रिका” (1960 ) में श्रीनिवास का संपादकीय )
साहित्य में मनुष्य के सारे मानसिक व्यापारों का चित्रण मित्रता है। प्रश्न यह है साहित्य विज्ञान और नीति से किस प्रकार भिन्न है । वस्तुतः साहित्य में मनुष्य का सारा मन चेष्टाशील होता है। हम मन की विविध वृत्तियों को एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते ।
विज्ञान के पीछे भी कल्पना है और कला के पीछे भी विचार हैं। मानव मन विविध वृत्तियों को रखते हुए भी एक ही है। इसीलिए उसके विविध व्यापारों, विज्ञान, नीति, कला को एक दूसरे से पृथक् करना असम्भव है। फिर साहित्य और कला का विशिष्ट लक्षण क्या है ? और दूसरे व्यापारों से उसकी विभिन्नता कैसे सिद्ध हो सकती है ?
साहित्य आनन्द के लिए है। शब्दों का ऐसे प्रयोग जो आनन्द दे सके साहित्य के अन्तर्गत आएगा । परन्तु इस प्रयोग के मूल में जीवन और विश्व के सत्य का किसी न किसी रूप में ग्रहण होना चाहिये । देखना यह है, साहित्य का प्रयोग शिक्षा देने के लिये भी होता रहा है ! तो प्रश्न उठता है कि साहित्यकार आनन्द देने वाला है श्रथवा शिक्षक ?
साहित्य को हमारे यहां कान्तासम्मित उपदेश माना गया है। यदि इस में शिक्षा दी भी जाती है तो इस ढंग से कि साहित्यकार नीरस उपदेश का वितरक नहीं माना जाता । जिस बात को गुरु उपदेश के रूप में कहता है; और मित्र परामर्श के रूप में, साहित्य इस रीति से कहता है जिससे वह मन में रम जाती है; और उसके कारण हम विवश नहीं होते । तदनुसार आचरण करते हुए भी हम यह नहीं समझते कि हमें ऐसा करने के लिये बाध्य किया आ रहा है ।
साहित्य में वाह्य जगत् रहता है, परन्तु अपने निरपेक्ष रूप में नहीं, अपितु उस रूप में जैसा वह साहित्यकार को प्रतीत होता है। साहित्य को साधारण अर्थों में यथार्थवादी कहना ठीक नहीं, क्योकि इस में लेखक के अपने व्यक्तित्व का सम्मिश्रण रहता है। इसी सम्मिश्रण के कारण साहित्य में एक प्रकार की नूतनता आजाती है, उस प्रकार की आभा, जिसके सम्बन्ध में वर्डस्वर्थ कहता है – A Light that was neither on sea nor on Land.
साहित्य को अनुकरण कहा गया है। परन्तु अनुकरण से यह अभिप्राय नहीं कि साहित्य फोटो-ग्राफ़ी है । साहित्य वाह्यार्थ को उसके भौतिक सादृश्य को लेकर अंकित नहीं करता। साहित्य उसी प्रकार से अनुकरण है जैसे नृत्य हमारे मनोभावों का अनुकरण करता है। साहित्यकार अनुकरण करता है, परन्तु इस अनुकरण में उसकी आत्मा सम्पृक्त रहती है।
Poet शब्द का अर्थ है ‘बनाने वाला,’ रचयिता । साहित्यकार वस्तुतः रचयिता है। अनुकरण करता हुआ भी वह रचयिता है, क्योंकि जो वस्तु वह हमें देता है उस में वाह्य जगत् का यथार्थ विधान न होने के कारण एक नवीन अनुभव का निर्माण है। साहित्यकार हमें बतलाता है कि मैंने इस प्रकार से जीवन का अनुभव प्राप्त किया है। मेरी अमुक व्यापार के सम्बन्ध में यह द्रष्टि है। इस प्रकार वह द्रष्टा भी है, प्रदर्शक भी। वह अपनी कृति के द्वारा अपनी अनुभूतियों को दूसरों के लिए सुलभ बनाता है। यह भी स्पष्ट है कि वह जीवन के प्रवाह में स्थिर रहता है।
साहित्यकार आत्मा को अभिव्यक्त करता है, परन्तु उसकी आत्माभिव्यक्ति साधारण लोगों की आत्माभिव्यक्ति के समान नहीं। आत्मा-अभिव्यक्ति करने से पहले साहित्यकार अपने मनो-वेगों को परिष्कृत भी करता है। यह आवश्यक है, वह जिस कोटि की आत्माभिक्ति कर रहा है उसका प्रभाव समाज पर अच्छा पड़े। जो साहित्यकार समाज की वास्तविकताओं को समझने में असमर्थ होते हैं, और यदि उनका कार्य जो समाज में अनुमोदित नहीं हो सकता, उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है।
साहित्यकार की कृति में विविधना एकता में परिणत हो जाती है। जगत् की नानारूपता उस के मन के साथ सम्पर्क में आकर उसकी कल्पना में घुलमिल जाती है; और जब उसकी अभिव्यक्ति होती है तो स्वतः ही साहित्यकार के मानस की छाप उस पर लग जाती है ।
साहित्य का सम्बन्ध यथार्थ जगत् से तो है ही, परन्तु यथार्थवादी साहित्यकार यदि जीवन के मलिन रूपों को ही यथार्थ समझता है तो उससे साहित्य दूषित हो जाएगा। किसी महान् साहित्य-कार की कृति में हमें कपोल कल्पना नहीं मिलती प्रत्युत उसकी भेदिनी दृष्टि के ही दर्शन होते हैं।
जीवन जैसा महान् साहित्यकार को प्रतीत हुआ, उसने वैसा ही उसका अलेख कर दिया । साधारण जीवन में तो हम तीव्र अनुभूति प्राप्त ही नहीं करते । प्रत्येक दिन दूसरे दिन के समान ही होता है-जैसे दो अण्डे एक दूसरे के सदृश होते हैं। इससे चेतना कुण्ठित हो जाती है, उसमें स्फूति नहीं रहती । साहित्यकार हमें दिखाता है कि साधारण में भी वया असाधारण भरा पड़ा है।
कोई उपन्यास युद्ध के साथ सम्बन्ध रखता है, तो युद्ध के साथ जितनी अनुभूतियां सम्बद्ध हैं उनका मार्मिक ज्ञान हमें जैसा उपन्यास के अनुशीलन से प्राप्त हो सकता है वैसा और किसी प्रकार से नहीं। क्योंकि उपन्यासकार ने युद्ध के सम्बन्ध में जितने मार्मिक तथ्य हैं उन्हीं को ग्रहण किया इतिहासकार के समान सभी तथ्यों को नहीं ।
सहित्यकार कल्पना को उन्मुक्त करता है। वह अपनी सजग चेतना से हमारी अशक्ति भी दूर करता है। ऐसा करने से वह हमें हमारी ही अनुभूतियों को नये आलोक में देखने की क्षमता देता है।
जैसे जैसे हम व्यवहार-जगत् की कड़वी और कठिन परिस्थितियों में गहरे धंसने चले जाते हैं, हमारी चेतना का प्रवाह जमकर मानों हिम-खण्डों में परिणत हो जाता है । साहित्य कार चेतना में इन हिमखण्डों को पिघलाकर फिर तरंगित कर देता है। समाज नाम के किसी तत्त्व से साहित्यकार का साक्षात् सम्बन्ध नहीं होता। वह तो व्यक्ति-मानस को ही सम्बोधित करता है। इस प्रकार परोक्ष रूप से समाज में भी चेतना का उत्थान हो जाता है ।
हम कलाकार को सामाजिक चेतना में प्रतिष्ठित होकर सूजन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते । सामाजिक चेतना, चेतना के विविध रूपों में से एक है। समाज सामूहिक रूप से सत्य को नहीं पा सकता । सत्य को तो व्यक्ति ही पा सकता है। इस सत्य की लब्धि कई स्तरों पर हो सकती है, परन्तु इसके लिए सब से आवश्यक है भावना (Vision) और इसी Vision के पंखों पर चढ़ने की क्षमता हमें साहित्यकार देता है।
साहित्यकार हमें सत्य से ही प्रभावित कर सकता है। यह सत्य चाहे किसी विशिष्ट दृश्य, व्यापार अथवा व्यक्ति का न हो परन्तु महान् साहित्यकार की कृति को पढने के बाद हम अनायास ही कह उठते हैं, ‘जीवन का वास्तविक रूप यही है।’
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सम्पादक : श्रीनिवास- साहित्य का यह सुंदर संपादकीय लेखन गवर्नमेंट कॉलेज, लुधियाना (अब सतीश चंदर धवन गवर्नमेंट कॉलेज, लुधियाना) की इनहाउस पत्रिका द सतलज से लिया गया है। कॉलेज लाइब्रेरियन को धन्यवाद, जिन्होंने मुझे फटे हुए पन्नों से लेख सुरक्षित रखने की अनुमति दी।लेखक की तस्वीर नहीं मिल पाई I
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