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Jindgi, Maut Aur Buriha–Satyapal Anand

” ज़िन्दगी, मौत और बुढ़िया ” सत्यपाल आनन्द (गवर्नमेंट कॉलेज लुधियाना के 1950 के दशक के एक पुराने छात्र द्वारा एक सच्ची, बहुत ही मार्मिक कहानी जो 1947 डिवीजन के बाद पाकिस्तान से उनके शहर में रहने आने के बाद लिखी गई लगती है जिसे उन्होंने एक छात्र के रूप में कॉलेज पत्रिका के लिए प्रकाशन के लिए दिया था)

पीला झुर्रियां भरा चेहरा, पोपला मुंह, बिना पलकों के बहती हुई गंदी आंखें, सफेद हल्की पीलिमा लिये खुले रूखे बाल, फटी-पुरानी कमीज, टूटी हुई जूती, टेढ़ी-मेढ़ी हथलठिया । किन्तु इस पर भी बुढ़िया एक क़यामत से कम न थी !

मेरे  अपने घर के पास, दुलारी दाई के दरवाजे के बाहर, दीवार पर उलटा हाथ और हाथ की पीठ पर माथा टिकाये, दुलारी की सास चौखट पर बैठी रहती ।

सुबह दफ़्तर जाते और शाम को दफ़्तर से लौटते, एक बार निगाह उठाकर उसकी ओर देखना मेरा नियम सा बन गया था । नव्वे वर्ष की आयु-लोग कहा करते – पति को मरे हुए साठ वर्ष हो गये । दो बेटों को मरे हुए तीस वर्ष हुए । अन्तिम पुत्र, दुलारी दाई का पति दस वर्ष पूर्व पत्नी की बदचलनी के कारण उसे और माँ को छोड़ गयो । “बुढ़िया फिर भी जीती है।”

एक बार राम दयाल करियाना विक्रेता ने कहा, “बाबू जी, न जाने क्यों जी रही है यह बुढ़िया । इसे तो मर जाना चाहिए था। कछुवे की उम्र भोग रही है। कौन है अब इसका ? पति मर गया, बेटे गये, दुलारी दूर से दुतकारती है। रोटी तक तो मुहल्ले से मांग कर खाती है। दो कदम चल नहीं सकती । चार चार घंटे नाली पर बैठी रहती है। जाने क्यों जी रही है बुढ़िया !

दीनानाथ ने कहा । रामदयाल ने कहा । फिर एक बार कृष्णलाल बजाज ने भी समर्थन किया- ‘कितनी गंदी है, बाबू जी ! आप तो दफ़्तर चले जाते हैं। मैं कभी कभी दिन में घर पर ही होता हूं। सिर उठाने की तो शरीर में शक्ति नहीं। किन्तु जबान कैची की तरह चलती है। अधनंगी सी नाली पर बैठकर गंदगी करती रहती है। मेरी घर वाली ने कपड़े पहनकर बैठने को कहा तो बेचारी की शामत गई। मेरी तो सात पीढ़ियों को गाली देती रही। क्या किया जाये ? दुलारी से कोई गिला करे भी तो क्या ? उसे तो यह आप चैन नहीं लेने देती ।”

सुबह दफ़्तर जाते, शाम को दफ़्तर से लौटते, बुड़िया पर निगाह पड़ती। धरती का बोझ है, दिल कहता, अब सचमुच इसे मर जाना चाहिए । इसे यदि कोई कहे कि यह किसी की में मर जाये तो यह कितनी खुश हो। मौत लिए मुक्ति है। जिन्दगी तो एक अनवरत यातना है।एक एक सांस के लिए कितने कष्ट में है…..एक एक दिन कैसे गुजरता है इसका !

सुबह कटोरा लिये चाय मांगने चींटी की चाल से मेरे घर रही है तो दोपहर को दो रोटी के लिए दीनानाथ की चौखट पर है। बेटा मां की कैची सी जबान और पत्नी की विमुखता से तंग आकर भाग गया है। न मालूम जीवित भी है या नहीं। यह किस लिए जी रही है ? प्रायः इसी सोच में मग्न रहता। रात को पढ़ने में व्यस्त होता तो दूर से बुढ़िया की कॉपती हुई लेकिन आरे की तरह तेज आवाज सुनाई देती बुढ़िया दुलारी और उसके किसी ग्राहक को गालियों पर गालियां सुना रही होती । फटकार भी देती तो सात पीढ़ियो तक की……” अरी कंजरी ये करतूते ? मेरा बेटा खा लिया !   तेरे ये लच्छन !

मेरी पड़ने से तबीयत उचाट हो जाती। बुढ़िया है या कयामत, नव्वे वर्ष की होने को आई। इसे किसी की आई क्यों नहीं आ जाती ?

अचार्ज घरानाएक नहीं; मुहल्ले में दस अचार्ज घराने है। अचार्ज – जिनमें मुर्दो का कफ़न तक दान में ले लेना उचित होता है… जिनका किसी घर में आना तो दरकिनार घर के सामने से गुजरना भी मनहूस समझा जाता है। जो अपने घरों में अपनी चारपाड्यां सदैव उलटे रुल खड़ी किये रखते हैं ताकि शहर में मौतें अधिक हों, बीमारी फैले, आग लगे, किया-कर्म अधिक हों, दान अधिक से अधिक मिले।

विभाजन के पश्चात् जब हम यहाँ आये तो किसी को भी अपने नवे पड़ोसियों के बारे में ज्ञान नहीं था, इसलिए जब कुछेक  मास के बाद श्रीमती जी ने बताया कि हमारा घर चारों ओर से अचारज लोगों के घरों से घिरा है पौर ये हर नई सुबह मरने वालों के घरों से क्रिया-कर्म की नई चारपाइयो रजाइयां और अन्य सामान लिये आते हुए देखे जाते हैं, तो बड़ा अफसोस हुआ । अलाट हुआ तो कहाँ ! लेकिन फिर सोचा, क्या अन्तर पड़ता है। परिचय संवन्ध अथवा मित्रता तो बनाये से ही बनते हैं। हम उन्हें ज्यादा बुलाएंगे ही नहीं। दस वर्ष बीत गये। अचारज लोगः आपस में लड़ते-झगड़ते, खुश या नाराज रहते, हमें कोई सरोकार नहीं था। इस अवधि में उनकी लड़‌कियां लड़के जवान होकर ब्याहे गये , जो बच्चे हुए वे बड़े हो गये; लेकिन कुमः सामाजिक रूप से नसे दूर रहे।

चार्ज घराना…… दुलारी का पति शहर छोड़ कर चला गया वो उसका धंधा चमक उठा। उसकी बिरादरी में सब उसके लच्छन जानते थे, इसलिए वह खामोशी से ही बिरादरी से निकाल दो गई। अब श्मशान पर उसकी बारी न रखी जाती । लेकिन उसकी सास बदस्तूर एक सदस्या थी। हर पन्द्रह दिन के बाद उसकी बारी का आया हुआ क्रिया-कर्म का सत्र सामान उसे मिलता। कुछ नकद पैसे भी होते। नई चारपाइयां, रजाइयाँ और बर्तन बिक जाते । हर महीने बीस-पच्चीस की आमदनी हो जाती। उसे श्मशान पर जाने की भी जरूरत नहीं थी। रिश्ता का एक भतीजा ही सब काम भुगता देता और अपना हिस्सा खरा कर लेता । इसलिए बुढ़िया का गुजारा ठीक ही था। उसके पास अजारबन्द से बंधे हुए सौ डेढ़ सौ रुपये भी थे और कानों की बालियां भी थीं । दुलारी से वह बराबर की टक्कर लेती । एक एक की चार सुनाती। लेकिन अपने सब से छोटे पोते से वह सदा प्यार करती । दस बारह वर्ष का लड़का जिस में दुनियां के सब अवगुण थे, दादी से हमेशा बेरुखी से पेश आता । पीटने से भी संकोच न करता । किन्तु बुढ़िया फिर भी उसे चार आठ आने खर्च के लिए दे देती ।

एक दिन दफ्तर से लौटते हुए बुढ़िया को चौखट पर न पाया। घर में प्रवेश किया तो देख कर हैरान रह गया कि बुढ़िया सामने दालान में पीढ़े पर बैठीं अपनी तेज कैंची-सी आवाज में श्रीमती से बातें कर रही थी और साथ ही अपने मैले कपड़े में कुछ बांध रही थी। बड़ी हैरानी हुई ! इससे पूर्व रोटी सालन या चाय के लिये आती भी तो दरवाजे पर ही बैठ कर आवाज देती। मैं अन्दर गया, कपड़े उतार दिये, श्रीमती जी आई तो उन्होंने अपने आप ही कहा, “बेचारी को मेरठ से अपने बेटे की चिट्ठी बाई है-बह वहाँ बीमार है मुझवे पत्र लिखवाने आई थी, मैंने कुछ आटा वाटा भी दे दिया है।”

दिन बीतते गये । अब मैं प्रायः उसे अपने घर पर बैठे देखता । श्रीमती जी भी अब उसके साथ उदार हृदयता से काम लेती ! आटा देतीं… अपने पुराने कपड़े देकर उसे तन ढांपना सिखातीं । चाय बनाकर लोटे के बर्तन में उसके सामने रखतीं… कभी कभी नकद रुपये भी दे देतीं। वह पीड़े पर बैठे, अपनी हथलठिया पर हाथ की पीठ से सर टिकाये, कतर कतर बातें क्रिये जाती । उसके इधर आने के कारण एक दो बार दुलारी भी उसकी अनुपस्थिति में इधर आई ताकि श्रीमती जी उसके बारे में कोई गलत धारणा न बना सकें । घर आता तो कभी कभी ये सब रोचक बातें सुनने में आ जातीं ।

एक दिन मालूम हुआ कि दुलारी का छोटा लड़का घर से भाग गया है और दादी की संदूकची से पन्द्रह रुपये भी निकाल कर ले गया है। यद्यपि वह स्वयं बुढ़िया द्वारा लालित-पालित था और वह उसकी ज्यादतियों को भी सहन कर लेती थी, लेकिन आज वह सुबह से ही बक रही है। न कुछ खाया है, न कुछ पिया है। दुलारी से रुपये मांगती है, किन्तु वह नाक पर मक्खी नहीं बैठने देती । अन्ततः श्रीमती जी ने कुछ औरतों से मिलकर पन्द्रह रुपये पूरे कर दिये तो शान्ति हुई

फिर एक दिन मालूम हुआ कि दुलारी के कान से गिरा हुआ एक कांटा गुम हो गया है। और वह अपनी सास पर चोरी का इल्जाम लगा रही है। लेकिन बुड़िया किसी को भी अपना बक्स खोल कर नहीं देखने देती और दुलारी की एक गाली का उत्तर दस से देती है।

कई दिन उपद्रव रहा और जब तक कि दुलारी को अपने काँटे का टूटा हुआ हिस्सा चारपाई की पाँवती से न मिला, खामोशी न हुई। हर दूसरे दिन एक न एक झगड़ा खड़ा होता। कभी दुलारी बुड़िया पर हाथ उठा बैठती तो वह चीख चीख कर आधा शहर इकट्ठा कर लेती। मुहल्ले वालों का सुख चैन हराम हो जाता। ऐसे ही एक मौके पर बुड़िया की बाई कलाई टूट गई। फिर जो हंगामा हुआ पूरे पन्द्रह दिन के बाद शान्ति हुई । बुड़िया का एक हाथ हमेशा के लिए बेकार हो गया। वह उस पर मैली कुचैली पट्टी बाँधे रखती, सेंक करती रहती – हल्दी और घी की मालिश करती रहती ।

 बुढ़िया में श्रीमती जी की ये दिलचस्पी आखिर रंग लाई और घर में से छोटी-मोटी चीजें गुम होने लगीं। पहले चमचे और कटोरियां गुम होतीं, फिर एक दिन चाँदी का गिलास चोरी हो गया। हजार बार कहा कि यह बुढ़िया की ही कारस्तानी है, दुलारी ने तो एक चमचा भी बुढ़िया के कपड़ों से लाकर दिखा दिया। लेकिन श्रीमती जी न मानीं। एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा नौकर बदलती गई। बुढ़िया अपने बारे में चूंकि मेरी राय अच्छी तरह से जानती थी, इस लिए मेरे सामने कम ही आती । लेकिन मेरी अनुपस्थिति में वह कई कई बार आती । श्रीमती जी की कुर्सी या पलंग के पास पीड़े पर बैठी रहती । चुप रहना उसने सीखा ही न था। इसलिए मैं हैरान था कि श्रीमती जी उसकी बातें कैसे सुन लेती हैं।

कई दिन बीत गये। एक शाम को आया तो देखा, बुढ़िया अपने घर के सामने मिट्टी में बैठी थी। दुलारी के घर रोना धोना हो रहा था। दरी बिछी थी। अचारज बिरादरी के कुछ लोग बैठे थे। बुढ़िया खोखली आवाज में रो रही थी और बार बार सर पटक रही थी। पूछने पर मालूम हुआ कि उसका बेटा, दुलारी का पति, मेरठ में स्वर्गवास हो गया है। पुराना अफीमची था। एक दिन ज्यादाअफीम खा ली और सुबह मृत पाया गया। बेटे की  मृत्यु के बाद बुढ़िया की हालत उथल-पुथल हो गई। ऐसा मालूम होता कि उसकी जिंदगी का एक सार-गभित लक्ष्य भी समाप्त हो गया है। उसका भतीजा अब शमशान से प्राप्त हुआा सामान स्वयं ही पचा जाता। वह उसे हजार बार गालियां सुनाती लेकिन अब बेबस थी। उसका चेहरा और सुकड़ गया, झुरियां गहरी हो गई, कमर और झुक गई। शक्ति बिल्कुल जवाब दे गई। मुट्ठी भर हड्डियों का ढाँचा सा रह गई। अलबत्ता कभी हमारे घर आती तो पहले की तरह लाठी टेकती, च्यूटी की गति से चलती हुई आती, आध घंटा-घंटा बैठती, मतलब की बात करती, चीज लेती और चली जाती । दुलारी अब निर्वाध अपना धंधा करने लगी थी। इसलिए बुढ़िया अपनी सभी विवशताओं तथा दुर्बलताओं के बावजूद बदले के तौर पर अपनी गलियां और ताने ज्यादा तेज कर देती थी।आश्चर्य होता था कि इस हड्डियों के ढांचे में इतनी आग कैसे भरी पड़ी है ।

घर में बात होती तो मैं कहता घरती का बोझ है। यह मर क्यों नहीं जाती ? इस जिन्दगी से क्या मौत अच्छी नहीं ?” और श्रीमती जी अत्यन्त दार्शनिक ढंग से सिर हिलातीं- “हां, बुढ़िया का अब कौन है ? बेटा भी मर गया। दो पोते हैं… बड़ा तो पागलों की तरह सारा दिन बैठा मक्खियां मारता रहता है। अलबत्ता एक छोटा है- चार बार घर से भाग चुका है-दादी को कभी कभी पीटता भी है । लेकिन मरने को किसका जी चाहता है ?”

इन्फ्लुएंजा फैला तो सारा शहर ही उसकी लपेट में गया बुढ़िया गंदगी से लथपथ पड़ी रहती थी । एक दिन सुबह मालूम हुआ कि बुखार में बेहोश पड़ी है, साथ ही न मालूम क्या खा लिया है। हैजे की सी हालत है। उस दिन तो मैंने भी जरा कठोर शब्दों में श्रीमती जी को उसके समीप जाने से मना किया। “अब बुढ़िया मर जायगी” – सभी ने कहा। दो दिन बीत गये तो बेहोश बढ़िया को कैम्प के हस्पताल में ले जाने को म्युनसिपेलिटी की गाड़ी आई । नाक पर कपड़ा चढ़ाये म्युनिसिपेलिटी के दो मेहतरों ने उसे उठा कर गाड़ी में लिटाया। गंदगी से लथ पथ अर्द्धनग्न बेहोश बुढ़िया को लिये हुए जब गाड़ी गली से निकल गई तो जैसे सब में जान पड़ गई, जैसे बुढ़िया की अर्थी उठ गई हो दुलारी ने भी सुख का सांस लिया। और वह उस रात काफी देर तक बुढ़िया की कोठरी में कुछ ढूंढ़ती हुई देखी गई। उसका छोटा बेटा, बुढ़िया का पाला पोसा पोता उसके साथ ही लालटेन लिये था ।

दो दिन के बाद दुलारी का छोटा बेटा भी बीमार पड़ गया लेकिन उसी शाम म्युनिसिपेलिटी वाले बुढ़िया की वापस छोड़ गये। मैंने देखा वह उसी तरह दीवार से माथा टिकाये, आँखें बन्द किये दुलारी के दरबाजे पर बैठी है। उसके कपड़े ज्यादा फटे हुए हैं। अब उसमें जिन्दगी की एक मामूली सी लो शेष हैएक क्षीण सा धागा है जो मालूम कब टूट जाये। दुलारी की गालियों का जवाब भी अब उसके पास नहीं, खाँस रही है।

गर्दन की कमजोर रगें फूल जाती हैं। आंखें बाहर निकल आती हैं, लेकिन जिये जा रही है । “अमेरिका में तो डाक्टर लोग ऐसे बेचारे मरीजों को जहर भी दे देते हैं।” अमेरिका से लौट कर आये नय्यर साहब ने उसके बारे में कहा। वे उन्हीं दिनों गली के दूसरे मोड़ पर बने हुए मकान में आये थे ।

दुलारी का छोटा लड़का बहुत बीमार हुआ कि जान के लाले पड़ गये बुढ़िया को इस लड़के से बहुत मुहब्बत थी, सभी जानते थे । मैंने भी जाते हुए सहानुभूति के तौर पर पूछा–“माई, लड़के का क्या हाल है ?” बुढ़िया ने बेनूर आँखों से मेरी ओर देखा । उसमें शायद पहचानने की शक्ति भी नहीं रही थी। बोली “बड़ा वे-आराम है…सारी रात तड़पता रहता है मेरे राम, तू बच्चे को सुख दे !”

मैं चला गया। काम से लौटा तो मालूम हुआ, बच्चे की हालत पहले से अधिक खराब है। ग्यारह बरस का खेलता कूदता बच्चा; इन्फ्लुएंजा हुम्रा और ऐसा हुआ कि दस बजे के लगभग उसका देहान्त हो गया ।

दुलारी के घर में कुहाराम मचा तो मैं भी उठकर गया बुढ़िया उसी प्रकार दरवाजे से सिर टिकाए खामोश, आँसू बहा रही थी । ऊंचा रोने और स्यापा करने का उसमें सामर्थ्य न था । बीमारी ने रही-सही शक्ति भी निचोड़ ली थी। मैं गया तो रामदयाल और कृष्ण लाल आदि अन्य लोग भी आ गए ।

बुढ़िया बेचारी“… कृष्ण लाल ने कहा–“यह दिन भी इसे देखता था, काश ! इस मासूम बच्चे की बजाए यही मर जाती ।”

बुढ़िया ने शायद बात सुन ली उसने दीवार से सिर उठाया, लाठी का सहारा लेकर हजार हमारे सामने आई, मैंने समझा अब वह दिक्कतों से उठकर खड़ी हुई, बेनूर आंखों से हमें देखा । लाठी छोड़कर गिर पड़ेगी, सर पटक पटक कर रोयगी, मौत के लिए गिड़गिड़ाएगी, लेकिन उसने अपना पोपला मुँह खोला और फिर हम पर गालियों की बौछाड़ आरम्भ कर दी ।

मुझे अन्दर मौत के कुहराम और बाहिर जिन्दगी के कुहराम में अंतर करना कठिन हो गया  !

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https://en.wikipedia.org/wiki/Satyapal_Anand

At Government College, Ludhiana, ( Now SCD Govt College Ludhiana) , we alumni feel proud of our rich heritage of profound literature treasure which is a glorious history of our Alma Mater presrved in old issues of The Sutlej . The above writeup of Dr Ananad has been taken from 1960 issue of the magazine from the college library

— Brij Bhushan Goyal ,Organizing Secretary Alumni Association SCD Govt College, Ludhiana 9417600666  [email protected]

 

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