ब्रह्माण्ड का शिक्षक–सोचो, चुनो, जागो
मैं कालेज में अरस्तू पढ़ाता था…
फिर बताता कि वह गलत था।
छात्र चकित रहते, कहते: “सर, परीक्षा में क्या लिखें?”
मैं कहता:
“अगर अरस्तू को सही मानते हो, तो वही लिखो।
अगर मुझे सही मानते हो, तो मेरी बात लिखो।
और अगर हमें दोनों को गलत मानते हो, तो अपनी बात लिखो।
सोचो, चुनो, जागो।”
लेकिन यह तरीका विश्वविद्यालय को रास नहीं आया।
कुलपति ने कहा: “छात्र सच्चाई जानने नहीं, डिग्री लेने आते हैं।”
मैंने जवाब दिया:
“तो मेरा इस्तीफा स्वीकार कीजिए — मैं क्लर्क, स्टेशन मास्टर, पोस्टमास्टर बनाने नहीं आया।
मैं सोचने वाले इंसान बनाना चाहता हूँ।”
और मैंने इस्तीफा दे दिया।
फिर बीस वर्षों तक देशभर में घूमता रहा —
अब बीस छात्रों की क्लास नहीं, पचास हज़ार का सभागार मेरी कक्षा बन गया।
विश्वविद्यालय से निकला… तो ब्रह्मांड मेरा स्कूल बन गया।
अब मैं ब्रह्माण्ड का शिक्षक हूँ!